मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

श्वेत और पीत के बीच हमारी पत्रकारिता?

एक दिन अचानक दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने मुझसे सवाल किया, "पापा यह न्यूड डांस क्या होता है?" उस वक्त मेरे साथ कुछ मेहमान भी आए हुए थे। यह सवाल सुनकर सभी आवाक रह गए। हमने फौरन उससे जानना चाहा कि उसने इस अजीबोगरीब शब्द की खोज कहां से की, तो उसने बड़ी ही मासूमियत से टेबल पर रखा अखबार दिखा दिया। दरअसल सुपर स्टार शाहरुख खान ने आईपीएल के एक मैच में कहा था कि अगर उसकी टीम जीत जाती है तो वह न्यूड डांस करेंगे। अखबार वाले बंधुओं ने भी इस बेहूदा बयान को अपनी पूरी बेहूदगी के साथ छाप डाला। खैर, उस दिन न तो कोलकाता नाइट राइडर्स मैच जीत पाई और न शाहरुख को नग्न होकर अपनी नृत्य कला प्रदर्शित करने का मौका मिला।

स्कूल के दिनों में हमारे अध्यापक और अभिभावक रीडिंग डाल कर हिंदी या अंग्रेजी बोलने की प्रैक्टिस करवाते थे। इससे न सिर्फ बोलचाल की झिझक खत्म होती थी, बल्कि शब्दों के उच्चारण में भी स्पष्टता आती थी। आजकल के अध्यापक रीडिंग यानि जोर जोर से पढ़ने पर अधिक समय नहीं देते। मैने सोचा कि बिटिया को अंग्रेजी अखबार की रीडिंग डलवाई जाए। उसे एक अखबार थमाते हुए मैने रीडिंग डालने को कहा तो सबसे पहले उसका सवाल आया, "पापा, यह ब्लड बाथ क्या होता है?" मैंने सकपका कर उसे आगे के पन्ने पर नजर डालने को कहा तो उसने जोर जोर से पढ़ना शुरु किया, "आएशा हैड फिजिकल इंटीमेसी विद मलिक..."

मैंने हड़बड़ा कर अखबार उसके हाथों से ले लिया और कहा, "अब तुम पार्क में जा कर खेलो"। यहां इन बातों का जिक्र करने का तात्पर्य यह सवाल उठाना है कि आखिर क्या छप रहा है आजकल मसालेदार खबरों के नाम पर? क्या साफ-सुथरी पत्रकारिता भारत के लिए बीते जमाने की बात हो गई? जितनी गलती एक नामी-गिरामी अभिनेता ने भौंडा बयान देकर की उससे भी बड़ी गलती हमारे पत्रकार बंधुओं ने उस बयान को अहमियत देकर की है। खबरों को मसालेदार बनाने की भूख ने क्या हमारे सोचने समझने की ताकत को खत्म कर दिया है? क्या इसे शब्दों को चुनने में लापरवाही कहा जाए या फिर यह कोई सोची समझी साजिश है? क्या किसी को यह फिक्र नहीं है कि उनकी भाषा का उनके अपने घर में रहने वाले सदस्यों पर क्या असर पड़ेगा?

हाल के दिनों में सानिया प्रकरण में मीडिया का अनोखा ही रूप देखने को मिला। क्या प्रिंट, क्या इलैक्ट्रॉनिक सभी मीडिया वालों का मानो एक ही ध्येय बन गया था... किसी तरह शोएब सानिया की शादी टल जाए या रुक जाए। जब आएशा प्रकरण किसी तरह दोनों परिवारों की सहमति से निबट गया तो शोएब को झूठा करार देने की होड़ मच गई। इतना ही नहीं, इस पाकिस्तानी क्रिकेटर की पुरानी नितांत निजी तस्वीरों का सहारा लेकर उस पर जम कर कीचड़ भी उछाला गया। वो तो भला हो सानिया और शोएब का जिन्होंने टीवी या अखबार की बजाए एक दूसरे पर भरोसा किया, वरना उनका घर बसने से पहले ही उजड़ जाता। इस प्रकरण को देख कर मुझे डायना की मौत के समय ब्रिटिश मीडिया की भूमिका और फिर उनकी शर्मिंदगी की याद आ गई। भारतीय मीडिया को एक आत्ममंथन की आवश्यकता जरूर है। हमारी पत्रकारिता बेशक यूरोपीय और अमेरिकी देशों की पत्रकारिता की तरह घिनौनी और पीली नहीं हुई है, लेकिन इसे सफेद तो कतई नहीं कहा जा सकता।