रविवार, अक्तूबर 03, 2010

भारतीय पत्रकारिता और उसकी जरूरतें

हर देश की पत्रकारिता की एक अपनी जरूरत होती है और उसी के मुताबिक वहां की पत्रकारिता का तेवर तय होता है। इस दृष्टि से अगर देखा जाए तो भारत की पत्रकारिता और पश्चिमी देशों की पत्रकारिता में बुनियादी स्तर पर कई फर्क दिखते हैं। भारत को आजाद कराने में यहां की पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। जबकि ऐसा उदाहरण किसी पश्चिमी देश की पत्रकारिता में देखने को नहीं मिलता है। समय के साथ-स‌ाथ यहां की पत्रकारिता की प्राथमिकताएं बदल गईं और काफी भटकाव आया। पश्चिमी देशों की पत्रकारिता भी बदली लेकिन वहां जो बदलाव हुए उसमें बुनियादी स्तर पर भारत जैसा बदलाव नहीं आया।

इस बात पर दुनिया भर में आम सहमति दिखती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में गिरावट आई है। इस गिरावट को दूर करने के लिए हर जगह अपने-अपने यहां की जरूरत के हिसाब से रास्ते सुझाए जा रहे हैं। हालांकि, कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें हर जगह पत्रकारिता की कसौटी बनाया जा सकता है। दुनिया के कुछ जाने माने प्रिंट और टीवी पत्रकारों ने इस दुर्दशा को भांप ठोस कदम उठाने की स‌ोची और एक स‌मिति का गठन किया। करीब तीन स‌ाल पहले अमेरिका में बनी इस स‌मिति का नाम था कमेटि ऑफ कंसर्न्ड जर्नलिस्ट्स। करीब ढाई स‌ाल के शोध के बाद इस स‌मिति ने पत्रकारिता में आरहे गिरावट को दूर करने के लिए कुछ उपाय स‌ुझाए हैं। अगर हम अपने देश के लिहाज स‌े देखें तो ये स‌ुझाव काफी कारगर स‌िद्ध होंगे।

समिति ने अपने अध्ययन और शोध के बाद इस बात को स्थापित किया कि सत्य को सामने लाना पत्रकार का दायित्व है। वैसे तो पत्रकारिता के पारंपरिक बुनियादी सिद्धांतों में यह शामिल रहा ही है। पर यहां सवाल उठता है कि इसका कितना पालन किया जा रहा है? भारत की पत्रकारिता को देखा जाए तो हालात का अंदाजा सहज ही लग जाता है। अब अयोध्या मुद्दे को ही देखा जाए। एक रपट में यह बात उजागर हुई कि तथ्यों को लेकर भी अलग-अलग मीडिया संस्थान अपनी सुविधा के अनुसार रिपोर्टिंग करते हैं। जब एक ही घटना की रिपोर्टिंग कई तरह से होगी, वो भी अलग-अलग तथ्यों के साथ तो इस बात को तो समझा ही जा सकता है कि सच कहीं पीछे छूट जाएगा। दुर्भाग्य से ही सही लेकिन ऐसा हो रहा है।

दूसरी बात यह है कि पत्रकार को सबसे पहले जनता के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। इस कसौटी पर देखा जाए तो अपने यहां उल्टी गंगा बह रही है। आज एक पत्रकार को किसी मीडिया संस्थान में कदम रखते ही स‌बसे पहले यह समझाया जाता है कि वे किसी मिशन भावना के साथ काम नहीं कर सकते। वे नौकरी कर रहे हैं इसलिए स्वभाविक तौर पर उनकी जिम्मेदारी अपने नियोक्ता के प्रति है। यहां इस बात को समझना आवश्यक है कि अगर मालिक की प्रतिबद्धता भी पत्रकारिता के प्रति है तब तो हालात सामान्य रहेंगे, लेकिन आज इस बात को भी देखना होगा कि मीडिया में लगने वाले पैसे का चरित्र का किस तेजी के साथ बदला है। जब अपराधियों और नेताओं के पैसे से मीडिया घराने स्थापित होंगे तो स्वाभाविक तौर पर उनकी प्राथमिकताएं अलग होंगी।

खबर तैयार करने के लिए मिलने वाली सूचनाओं की पुष्टि में अनुशासन को बनाए रखना पत्रकारिता का एक अहम तत्व है। अगर देखा जाए तो पुष्टि की परंपरा ही गायब होती जा रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के मीडिया कवरेज के दौरान देखने को मिला। एक खबरिया चैनल ने खुद को आतंकवादी कहने वाले एक व्यक्ति से फोन पर हुई बातचीत का सीधा प्रसारण कर दिया। अब सवाल यह उठता है कि क्या वह व्यक्ति सचमुच उस आतंकवादी संगठन से संबद्ध था या फिर वह मीडिया का इस्तेमाल कर रहा था। जिस समाचार संगठन ने उस साक्षात्कार ने उस इंटरव्यू को प्रसारित किया क्या उसने इस बात की पुष्टि की थी कि वह व्यक्ति मुंबई हमले के जिम्मेवार आतंकवादी संगठन से संबंध रखता है? निश्चित तौर ऐसा नहीं किया गया था। ऐसे कई मामले भारतीय मीडिया में समय-समय पर देखे जा सकते हैं। आतंकवादी का इंटरव्यू प्रसारित करने के मामले में एक अहम सवाल यह भी है कि क्या किसी आतंकवादी को अपनी बात को प्रचारित और प्रसारित करने के लिए मीडिया का एक मजबूत मंच देना सही है? ज्यादातर लोग इस सवाल के जवाब में नकारात्मक जवाब ही देंगे।

एक अहम स‌ुझाव यह भी है कि पत्रकारिता करने वालों को वैसे लोगों के प्रभाव से खुद को स्वतंत्र रखना चाहिए जिन्हें वे कवर करते हों। भारत की पत्रकारिता के समक्ष यह एक बड़ा संकट दिखता है। अपने निजी संबंधों के आधार पर खबर लिखने की कुप्रथा चल पड़ी है। कई ऐसे मामले उजागर हुए हैं जिसमें यह देखा गया है कि निहित स्वार्थ के लिए खबर लिखी गई हो। राजनीति के मामले में नेता जो जानकारी देते हैं उसी को इस तरह से पेश किय जाता है जैसे असली खबर यही हो। अपराध की रिपोर्टिंग करते वक्त भी जो जानकारी पुलिस देती है उसी के प्रभाव में आकर अपराध की पत्रकारिता होने लगती है। पुलिस हत्या को एनकाउंटर बताती है और ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि मीडया उसे एनकाउंटर के तौर पर ही प्रस्तुत करती है।

पत्रकारिता को सत्ता की स्वतंत्र निगरानी करने वाली व्यवस्था के तौर पर काम करना चाहिए। इस तथ्य पर सोचने के बाद यह पता चलता है कि जब पत्रकार सत्ता से नजदीकी बढ़ाने के लोभ स‌े बच नहीं पाता तो पत्रकारिता कहीं पीछे रह जाती है। एक बार किसी बड़े विदेशी पत्रकार ने कहा था कि भारत में जो भी अच्छे पत्रकार होते हैं उन्हें राज्य सभा भेजकर उनकी धार को कुंद कर दिया जाता है। ऎसे पत्रकारों के नाम याद करने में यहां की पत्रकारिता को जानने-समझने वालों को दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं देना पड़ेगा। ऐसे पत्रकार भी अक्सर मिल जाते हैं जो यह बताने में बेहद गर्व का अनुभव करते हैं कि उनके संबंध फलां नेता के साथ या फलां उद्योगपति के साथ बहुत अच्छे हैं। यही संबंध उन पत्रकारों से पत्रकारिता की बजाए जनसंपर्क का काम करवाने लगता है और उन्हें इस बात का पता भी नहीं चलता।

पत्रकारिता को जन आलोचना के लिए एक मंच मुहैया कराना चाहिए। इसकी व्याख्या इस तरह से की जा सकती है कि जिस मसले पर जनता के बीच प्रतिक्रया स्वभाविक तौर पर उत्पन्न हो उसकी अभिव्यक्ति का जरिया पत्रकारिता को बनना चाहिए। लेकिन आज कल ऐसा हो नहीं रहा है। इसमें मीडिया घराने उन सभी बातों को प्रमुखता से उठाते हैं जिन्हें वे अपने व्यावसायिक हितों के लिए स‌ही समझते हैं। जनता के स्वाभाविक मसले को उठाना समय या जगह की बर्बादी माना जाता है और ये सब होता है जनता की पसंद के नाम पर। जो भी परोसा जाता है उसके बारे में कहा जाता है कि लोग उसे पसंद करते हैं इसलिए वे उसे प्रकाशित या प्रसारित कर रहे हैं, जबकि विषयों के चयन में सही मायने में जनता की कोई भागीदारी होती ही नहीं है। इसलिए जनता जिस मसले पर व्यवस्था की आलोचना करनी चाहती है वह मीडिया से दूर रह जाता है।

समिति ने पत्रकारिता के अनिवार्य तत्व के तौर पर कहा है कि पत्रकार को इस दिशा में प्रयत्नशील रहना चाहिए कि खबर को सार्थक, रोचक और प्रासंगिक बनाया जा सके। इस आधार पर तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि खबर को रोचक और प्रासंगिक बनाने की कोशिश तो यहां की पत्रकारिता में दिखती है लेकिन उसे सार्थक बनाने की दिशा में पहल करते कम से कम मुख्यधारा के मीडिया घराने तो नहीं दिखते। जो संस्थान सार्थक पत्रकारिता कर भी रहे हैं, उनके पास विज्ञापनों का अभाव रहता है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अगर पत्रकारिता सार्थक होने लगेगी तो बाजार के लिए अपना हित साधना आसान नहीं रह जाएगा।

सुझाव है कि समाचार को विस्तृत और आनुपातिक होना चाहिए। इस नजरिए से देखा जाए तो इसी बात में खबरों के लिए आवश्यक संतुलन का तत्व भी शामिल है। विस्तार के मामले में अभी जो हालात हैं उन्हें देखते हुए यह तो कहा जा सकता है कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है लेकिन बहुत बुरी भी नहीं है। जहां तक संतुलन का सवाल है तो इस मामले में व्यापक सुधार की जरूरत दिखती है।

आखिर में पत्रकारिता के लिए एक अहम तत्व के तौर पर इस बात को शामिल किया गया है कि पत्रकारों को अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी हर हाल में होनी ही चाहिए। इस कसौटी की बाबत तो बस इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सही मायने में पत्रकारों के पास अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी होती तो जिन समस्याओं की बात आज की जा रही है, उन पर बात करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

शनिवार, अगस्त 07, 2010

मोदी की जीत और मीडीया की हार?

फिर निगेटिव पब्लिसिटी का फायदा मिलेगा मोदी को

गोधरा दंगों के बाद जब गुजरात का चुनाव जीत कर नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के पत्रकारों को गुजरात भवन बुलाया तब उस ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस में मैं भी मौजूद था. देश-विदेश के सैकड़ों पत्रकारों और मीडीयाकर्मियों से खचाखच भरे हॉल को संबोधित करते हुए दंभ से भरी विजयी मुस्कान के साथ नव निर्वाचित मुख्यमंत्री ने कहा था, “गुजरात चुनावों की विजय में सहयोग के लिए आप सभी पत्रकार बंधुओं को धन्यवाद.” खिसियाने अंदाज में पत्रकार मुसकुराए तो कैमरामैन और तकनीशीयन ठहाके मार कर हंस पड़े. यह हंसी उन धुरंधरों पर थी जो दिन रात एक करके मोदी के खिलाफ खबरें और बयान जुटाने में लगे थे, लेकिन हुआ उसका उल्टा. मोदी ने पूरी प्रेस कांफ्रेंस में मीडीया को चिढ़ा चिढ़ा कर अपनी उपलब्धियां गिनाईं.
बाद में मैंने भोजन के दौरान मोदी पर एक हल्का सा सवाल दागा. मैंने पूछा, आप जो मीडीया को अपनी निगेटिव रिपोर्टिंग के लिए कोस रहे थे, “क्या देश भर के पत्रकार यह सब बिना आपकी मर्जी के कर रहे थे?” भौंचक्के से नरेंद्र मोदी ने मुझे कुछ पल देखा, फिर मेरा हाथ अपने हाथ में दबाए एक जोरदार ठहाका लगाया. यह अट्टहास था उन पत्रकारों पर जो बिना कुछ सोचे विचारे, महज भेड़चाल में ‘एंटी-मोदी कैंपेन’ का हिस्सा बने हुए थे. अपनी हिंदुत्व की प्रयोगशाला में इस भगवा प्रेमी नेता ने सबसे ज्यादा फायदा अपनी निगेटिव पब्लिसिटी का ही उठाया.
मोदी पर सांप्रदायिक होने का आरोप जितना साबित होता है, उतना ही उनके वोटर संगठित होते हैं. यह बात उस समय भी कम ही पत्रकारों की समझ में आई थी और शायद आज भी उनकी अक्ल वैसी ही है. कम से कम सोहराबुद्दीन मर्डर केस में फंसे अमित शाह के मामले में तो ऐसा ही नजर आया. यह सब को पता है कि सोहराबुद्दीन एक दुर्दांत अपराधी था जिसका गुजरात भर के व्यापारियों पर आतंक था. मुझे याद है, जब उसकी मौत की पुष्टि हुई थी तब कई बाजारों में दिल खोल कर मिठाइयां बांटी गई थीं. इन खुशियां मनाने वालों में सिर्फ हिंदू ही नहीं, कई मुस्लिम व्यवसायी भी शरीक थे. शायद कांग्रेस को तब भी इस बात का इल्म नहीं था कि सोहराबुद्दीन मामला उनके लिए मुस्लिम वोट बटोरने में कम, भाजपा को हिंदू और व्यापारी वर्ग का वोट दिलाने में ज्यादा मददगार होगा.
चाहे चंद हफ्तों बाद गुजरात में होने वाले स्थानीय निकाय के चुनाव हों या फिर कुछ ही महीनों में बिहार विधान सभा के चुनाव, भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां अमित शाह की गिरफ्तारी का मुद्दा उठा सकती हैं. बिहार के बारे में तो अभी से कोई अटकल लगाना जल्दबाजी होगी, लेकिन गुजरात में यकीनन भाजपा को इसका फायदा मिलेगा. एक तरफ यह सवाल बेशक उठे कि गुजरात के पूर्व गृहमंत्री की गिरफ्तारी और उससे मचे हंगामे का फायदा किस चुनाव में किसे मिलेगा, लेकिन दूसरी तरफ यह नहीं भूलना चाहिए कि पत्रकारों की कलम की धार और प्रहार तथाकथित सेक्युलरवादियों की वाहवाही चाहे जितनी बटोर ले, हकीकत यह है कि उसकी इसी धार का प्रयोग वे भी कर रहे हैं जिन्हें ‘सांप्रदायिक’ बता कर निशाने पर रखा जा रहा है और यही मीडीया की हार है.

मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

श्वेत और पीत के बीच हमारी पत्रकारिता?

एक दिन अचानक दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने मुझसे सवाल किया, "पापा यह न्यूड डांस क्या होता है?" उस वक्त मेरे साथ कुछ मेहमान भी आए हुए थे। यह सवाल सुनकर सभी आवाक रह गए। हमने फौरन उससे जानना चाहा कि उसने इस अजीबोगरीब शब्द की खोज कहां से की, तो उसने बड़ी ही मासूमियत से टेबल पर रखा अखबार दिखा दिया। दरअसल सुपर स्टार शाहरुख खान ने आईपीएल के एक मैच में कहा था कि अगर उसकी टीम जीत जाती है तो वह न्यूड डांस करेंगे। अखबार वाले बंधुओं ने भी इस बेहूदा बयान को अपनी पूरी बेहूदगी के साथ छाप डाला। खैर, उस दिन न तो कोलकाता नाइट राइडर्स मैच जीत पाई और न शाहरुख को नग्न होकर अपनी नृत्य कला प्रदर्शित करने का मौका मिला।

स्कूल के दिनों में हमारे अध्यापक और अभिभावक रीडिंग डाल कर हिंदी या अंग्रेजी बोलने की प्रैक्टिस करवाते थे। इससे न सिर्फ बोलचाल की झिझक खत्म होती थी, बल्कि शब्दों के उच्चारण में भी स्पष्टता आती थी। आजकल के अध्यापक रीडिंग यानि जोर जोर से पढ़ने पर अधिक समय नहीं देते। मैने सोचा कि बिटिया को अंग्रेजी अखबार की रीडिंग डलवाई जाए। उसे एक अखबार थमाते हुए मैने रीडिंग डालने को कहा तो सबसे पहले उसका सवाल आया, "पापा, यह ब्लड बाथ क्या होता है?" मैंने सकपका कर उसे आगे के पन्ने पर नजर डालने को कहा तो उसने जोर जोर से पढ़ना शुरु किया, "आएशा हैड फिजिकल इंटीमेसी विद मलिक..."

मैंने हड़बड़ा कर अखबार उसके हाथों से ले लिया और कहा, "अब तुम पार्क में जा कर खेलो"। यहां इन बातों का जिक्र करने का तात्पर्य यह सवाल उठाना है कि आखिर क्या छप रहा है आजकल मसालेदार खबरों के नाम पर? क्या साफ-सुथरी पत्रकारिता भारत के लिए बीते जमाने की बात हो गई? जितनी गलती एक नामी-गिरामी अभिनेता ने भौंडा बयान देकर की उससे भी बड़ी गलती हमारे पत्रकार बंधुओं ने उस बयान को अहमियत देकर की है। खबरों को मसालेदार बनाने की भूख ने क्या हमारे सोचने समझने की ताकत को खत्म कर दिया है? क्या इसे शब्दों को चुनने में लापरवाही कहा जाए या फिर यह कोई सोची समझी साजिश है? क्या किसी को यह फिक्र नहीं है कि उनकी भाषा का उनके अपने घर में रहने वाले सदस्यों पर क्या असर पड़ेगा?

हाल के दिनों में सानिया प्रकरण में मीडिया का अनोखा ही रूप देखने को मिला। क्या प्रिंट, क्या इलैक्ट्रॉनिक सभी मीडिया वालों का मानो एक ही ध्येय बन गया था... किसी तरह शोएब सानिया की शादी टल जाए या रुक जाए। जब आएशा प्रकरण किसी तरह दोनों परिवारों की सहमति से निबट गया तो शोएब को झूठा करार देने की होड़ मच गई। इतना ही नहीं, इस पाकिस्तानी क्रिकेटर की पुरानी नितांत निजी तस्वीरों का सहारा लेकर उस पर जम कर कीचड़ भी उछाला गया। वो तो भला हो सानिया और शोएब का जिन्होंने टीवी या अखबार की बजाए एक दूसरे पर भरोसा किया, वरना उनका घर बसने से पहले ही उजड़ जाता। इस प्रकरण को देख कर मुझे डायना की मौत के समय ब्रिटिश मीडिया की भूमिका और फिर उनकी शर्मिंदगी की याद आ गई। भारतीय मीडिया को एक आत्ममंथन की आवश्यकता जरूर है। हमारी पत्रकारिता बेशक यूरोपीय और अमेरिकी देशों की पत्रकारिता की तरह घिनौनी और पीली नहीं हुई है, लेकिन इसे सफेद तो कतई नहीं कहा जा सकता।

मंगलवार, मार्च 30, 2010

राष्ट्रगान पर एक नजर

मैं बचपन से ही सोचता आया था कि आखिर ये कौन 'अधिनायक' और 'भारत भाग्य विधाता' हैं जिनके जयघोष से हम अपने राष्ट्रगान की शुरुआत करते हैं?
मुझे लगता था यह मातृभूमि भारत का ही नाम होगा, लेकिन हाल में एक मित्र के साथ इस पर चर्चा छिड़ी तो कई बातें सामने आईं...
जरा आप भी गौर करें...
शुरुआत करें इसके इतिहास से...
1- जन गण मन.. को नोबल विजेता गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने 1911 में लिखा था किंग जॉर्ज पंचम के सम्मान में जब वे महारानी के साथ भारत पधारने वाले थे (इंडिया गेट भी उसी दौरान बना था जिसपर ब्रिटिश सरकार के वफादार बलिदानी सिपाहियों के नाम खुदवाए गए थे, और जिस पर आज भी भारत के राष्ट्रपति सभी सेनाध्यक्षों के साथ गणतंत्र दिवस की परेड से पहले फूल चढ़ाने जाते हैं)। इसे 1912 में जॉर्ज के दरबार में गाया भी गया था। कहा जाता है कि पंडित मोतीलाल नेहरू ने इसमें पांच और अंतरे जुड़वाए थे जो किंग और क्वीन के सम्मान में थे।
2- इसके मूल बंगाली संस्करण में भी सिर्फ पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा.. आदि राज्यों का उल्लेख था जो सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन थे। गौर करने वाली बात है कि कश्मीर, राजस्थान आंध्र, मैसूर केरल आदि किसी भी देशी रियासत या राज्य का जिक्र नहीं था जो कि तब भी अखंड भारत के महत्वपूर्ण अंग थे। हिंद महासागर और अरब सागर का भी जिक्र नहीं है जो उस वक्त सीधे तौर पर पुर्तगालियों के नियंत्रण में थे।
3- 'जन गण मन अधिनायक' सीधे तौर पर जॉर्ज पंचम को बुलाया गया था जो भारत के भाग्य विधाता थे।
अगले अंतरों के भी अर्थ उन्हीं का महिमा मंडन करते हैं।
4- पंजाब सिंध गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग विंध्य हिमांचल जमुना गंगा उच्छल जलधि तरंग... इन सभी राज्यों, पर्वतों और नदियों के तट पर रहने वाले आपके आशीर्वचनों के अभिलाषी हैं
5- तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मांगे, गाये तव जय गाथा... (भारतीय) लोग आपका शुभ नाम लेते हुए जागते हैं और आपसे शुभ आशीर्वाद मांगते हैं। इसके बाद आपकी जयगाथा गाते हैं।
6- जन गण मंगल दायक जय हे भारत भाग्य विधाता... हे (भारतीय) जन गण को मंगल प्रदान करने वाले, हे भारत के भाग्य विधाता, आपकी जय हो.. जय हो, जय हो, जय हो.. हर तरफ जय ही जय हो

पूरी कविता में कहीं भी भारत का जिक्र नहीं है। ये मातृभूमि की वंदना नहीं, बल्कि महारानी और महाराजा का गुणगान था।
आगे से जब भी आप राष्ट्रगान के तौर पर जन गण मन अधिनायक दोहराएं, एक बार विचार अवश्य करें कि पिछले सा साठ वर्षों से भी अधिक समय से आखिर किसकी जय कर रहे हैं हम डेढ़ अरब भारतवासी?
क्या हम कभी समझ पाएंगे ???

पत्रकारों का बीमा

मित्रों, पिछले दिनों की व्यस्तताओं में एक व्यस्तता यह भी थी कि हमारी संस्था राष्ट्रीय पत्रकार कल्याण ट्रस्ट(www.patrakar.org)कुछ पत्रकार भाइयों के लिए कई कल्याणकारी कार्यों में जुटी थी। पिछले दिनों संस्था ने नोएडा के कुछ पत्रकारों का बीमा भी करवाया। प्रस्तुत है bhadas4media पर छपी खबर:

राष्ट्रीय पत्रकार कल्याण ट्रस्ट ने नोएडा शहर के पत्रकारों का दुर्घटना बीमा करवाया है। गुरुवार को नोएडा के सेक्टर 6 स्थित एन.ई.ए. सभागार में पहले चरण में बीमा से लाभान्वित करीब 30 पत्रकारों को उनकी पॉलिसी सौंपी गई। यह समारोह यूपी वर्किंग जर्नलिस्ट एसोशिएसन और राष्ट्रीय पत्रकार कल्याण ट्रस्ट के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित हुआ। इस अवसर पर फोनरवा के अध्यक्ष एनपी सिंह, सूचना अपर निदेशक दिनेश गुप्ता, देशबंधु के संपादक अमिताभ अग्निहोत्री मौजूद थे।

राष्ट्रीय पत्रकार कल्याण ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी और नोएडा प्रभारी नरेंद्र भाटी ने बताया कि जो पत्रकार पहले चरण में इस योजना का लाभ नहीं उठा पाए हैं, उन्हें भी निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अभी पहले चरण की पॉलिसियां ही मिली हैं। भाटी के मुताबिक उनकी संस्था न सिर्फ पत्रकारों का बीमा करवाती है, बल्कि गरीब पत्रकारों को निजी तौर पर भी मदद करती है। ट्रस्ट ने कई गरीब पत्रकार बंधुओं की बहनों और बेटियों की शादी भी करवाई है। ट्रस्ट के अध्यक्ष धीरज भारद्वाज ने बताया कि ट्रस्ट की देश भर में फैली शाखाओं में बीमा के लिए फॉर्म भरने का कार्य प्रगति पर है और ज्यादा से ज्यादा पत्रकारों को इसका लाभ पहुंचाने की कोशिश की जाएगी। भारद्वाज के मुताबिक अभी तक ट्रस्ट ने कोई कॉरपोरेट या सरकारी मदद नहीं हासिल की है, लेकिन पत्रकारों के हित में सभी को साथ जोड़ने की तैयारी है।

देरी के लिए क्षमा

इंसान की जिंदगी व्यस्तताओं का एक संकलन है। पिछले कई महीने ऐसी व्यस्तता रही कि ब्लॉग लिखने का समय ही नहीं निकाल पाया। मुझे मालूम है कि ब्लॉगिंग के मेरे मित्रों को मेरे इस रवैये से निराशा हुई होगी, लेकिन उनसे कर बद्ध विनती है कि मजबूरियों को भी समझें।

पिछले दिनों वैसे तो काफी कुछ लिखा, लेकिन कोई भी लेख ऐसा नहीं लगा कि आपको कोई ताजा चीज पेश कर रहा हूं। हालांकि इस पर कई मित्रों ने ऐतराज़ भी जाहिर किया। कहने लगे, "कुछ भी लिख दिया करो, ताजा या बासी पढ़ने वाले तय कर लेंगे।" मैने भी सोचा कि जब ब्लॉग ही है तो संकोच कैसा?

अब फिर लिखने लगा हूं... देखता हूं कब तक रह पाता हूं?

गुरुवार, नवंबर 12, 2009

मनु शर्मा का पैरोल और मीडिया

पैरोल नियमों के उल्लंघन मामले में दोबारा विवादों में आए जेसिका लाल हत्याकाण्ड के मुख्य अभियुक्त मनु शर्मा ने मंगलवार 10 नवंबर को खुद ही तिहाड़ जेल में आत्मसमर्पण कर दिया। मनु शर्मा दो माह के पैरोल पर था। पैरोल की अवधि 22 नवम्बर तक थी लेकिन पैरोल शर्तो के उल्लंघन की हो रही चौतरफा आलोचना को देखते हुए वह खुद ही जेल वापस लौट गया। मीडिया इसे अपनी बड़ी जीत मान रहा है। लेकिन इस विवाद के कई अनदेखे पहलू हैं जिनपर ध्यान दिया जाए तो पता चलेगा कि क्या यह वास्तव में मीडिया की जीत है या फिर कुछ और?

दरअसल मनु को 23 सितंबर को ही पैरोल पर जाने की इजाजत मिल गई थी। उस वक्त किसी अदने से अखबार या टीवी चैनल में इसकी कोई छोटी-मोटी खबर तक नहीं आई। जैसा कि मीडिया रिपोर्ट भी बता रहे हैं, मनु हरियाणा विधानसभा चुनाव में खुलेआम अपने पिता का प्रचार करता घूम रहा था। तो क्या उस वक्त किसी अखबार या टीवी के रिपोर्टर को वह नजर नहीं आया? मनु हरियाणा के धनाढ्य राजनेता विनोद शर्मा का बेटा है और एक नवोदित मीडिया समूह का मालिक भी। आम आदमी के मन में यह सवाल उभर सकता है कि क्या उस समय यह खबर 'मैनेज' कर दी गई थी? मीडिया को इसका जवाब देना होगा।

मनु को पैरोल देते समय जिन तर्कों का सहारा लिया गया वह भी कम उटपटांग नहीं थे। उसने अपनी दरख्वास्त में अपनी मां की बीमारी और पारिवारिक व्यवसाय के 'जरूरी' काम निपटाने के अलावे एक कारण अपनी दादी के अंतिम संस्कार में हिस्सा लेना भी बताया था। दिलचस्प बात यह है कि मनु शर्मा की दादी की मृत्यु करीब साल भर पहले हो चुकी है। खबर चाहे कितनी भी सनसनीखेज़ क्यों न हो, बासी है। अगर किसी अखबार में दो या तीन दिन पुरानी खबर भी आती है तो उसे बासी करार देते हुए भीतर के पन्नों में जगह दी जाती है, लेकिन यहां दो महीने पुरानी खबर भी इस तरह छप रही है मानों बिल्कुल ताजी हो। क्या यह मीडिया की नाकामी नहीं है?

इसके अलावा मनु के दिल्ली के बार में घूमने की खबर भी टुकड़े-टुकड़े में ही आई। पहले बताया गया कि वह दिल्ली के किसी बार में घूमता पाया गया। दैनिक भाष्कर ने तो चंडीगढ़ के बार की खबर प्रकाशित कर दी। फिर खबर आई कि उसने हंगामा मचाया और भाग गया। फिर पता चला कि किसी पुलिस अधिकारी के बेटे से उसका झगड़ा हुआ था। आखिर में जा कर पता चला कि दिल्ली के पुलिस कमिश्नर वाई एस डडवाल के ही बेटे से मनु का झगड़ा हुआ था। खास बात यह है कि डडवाल ने शुरु से मीडिया के सामने एक पारदर्शी व्यक्तित्व की छवि रखी है और इस मामले में भी उन्होंने इसके अनुरूप ही बर्ताव रखा। यहां तक कि उन्होंने थापर समूह के युवा उद्योगपति की गिरफ्तारी के मामले में अपने बेटे से भी पूछताछ के आदेश दिलवा दिए। फिर मीडिया की क्या मजबूरी थी इस खबर को इतना पेंचीदा बनाने की? सवाल यह भी उठता है कि अगर इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति के बेटे से मनु का झगड़ा नहीं हुआ होता तो मनु का पैरोल पर पार्टी करना भी किसी अखबार के संज्ञान में नहीं आता?

इस बासी खबर को दिखाने में समाचार चैनल भले ही चूक गए हों पर ताज़ा चर्चा करने में कोई पीछे नहीं रहा। चर्चा क्या, राजनीतिक खींचतान ही ज्यादा दिखी। जो ऐसी उटपटांग बकवास करने में दिलचस्पी रखते हैं उन्हें भी चैनलों ने पूरा मौका दिया और टीआरपी बटोरने की कोशिश की। टाइम्स नाउ ने तो पत्रकारों के साथ-साथ फिल्म में कॉमेडियन का किरदार निभाने वाले ऐड एजेंसी मालिक सुहैल सेठ तक को अपने पैनल में बिठा लिया। कांग्रेस नेता जयंती नटराजन ने तो यहां तक कह दिया कि चैनल वालों ने पैनल बनाने में चालबाजी की है।

गौरतलब है कि जेसिका लाल की हत्या के बाद न सिर्फ राजनीतिक बल्कि तथाकथित संभ्रांत तबके के कुछ लोगों ने भी मनु को बचाने की भरसक कोशिश की। अगर मीडिया और जनता का एक बड़ा वर्ग सामने न आया होता तो उसे सजा भी नहीं मिल पाती। मनु को छूट देने के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने पुलिस को कड़ी फटकार लगाई थी और स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले को दोबारा शुरु किया था। यह सच है कि इस मामले में कहां किस स्तर पर चूक हुई है उसकी जांच होनी चाहिए और इस बारे में सब कुछ जनता के सामने आना चाहिए, लेकिन मीडिया को भी आत्ममंथन करने की जरूरत है।